काले-गोरेपन की चाह या मानसिक बीमारी? जानिए बॉडी इमेज डिसऑर्डर के लक्षण और समाधान

 

शिवी जब भी आईने में खुद को देखती, उसे लगता कि उसमें कुछ कमी है। वह बाकी लड़कियों की तरह गोरी नहीं थी। उसका रंग सांवला था, और यही बात समाज की नज़रों में उसकी सबसे बड़ी “कमज़ोरी” बन चुकी थी।

जब भी शादी में जाती, रिश्तेदार कह देते –

“लड़की तो अच्छी है, बस रंग थोड़ा दबा हुआ है…”

स्कूल में भी कुछ लड़कियां उसे “ब्लैक कॉफी” कहकर चिढ़ाती थीं।

शिवी चुप रहती थी, लेकिन अंदर ही अंदर टूट रही थी।

कॉलेज तक आते-आते उसने खुद से बात करना बंद कर दिया। वह आईने से कतराने लगी। मेकअप, फेयरनेस क्रीम, और फिल्टर – हर चीज़ में वो “गोरी दिखने” की कोशिश करती। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता। वो अंदर से खोखली होती जा रही थी।

एक दिन कॉलेज में पर्सनैलिटी डे प्रतियोगिता थी। शिवी का नाम भी लिस्ट में था, लेकिन उसने सोच लिया था कि वो स्टेज पर नहीं जाएगी।

अंतिम दिन उसकी प्रोफेसर, मिस वैशाली, ने उसे रोक लिया और कहा –

“शिवी, अगर सुंदरता रंग से मापी जाती, तो सूरज कभी सुंदर नहीं कहलाता। तुम्हारे आत्मविश्वास की चमक उस रंग से कहीं ज्यादा ज़रूरी है।”

उनके इन शब्दों ने शिवी को झकझोर दिया। पहली बार किसी ने उसके ‘रंग’ से ऊपर उसकी ‘पहचान’ की बात की थी।

शिवी का स्टेज डेब्यू

अगले दिन शिवी स्टेज पर पहुंची। उसने कोई मेकअप नहीं किया, न ही कोई स्पेशल ड्रेस पहनी – सिर्फ एक साधारण सूट में, खुद के रूप में।

उसने अपनी ही कहानी सुनाई – “कैसे वो अपने रंग से शर्मिंदा होती थी, और कैसे समाज ने उसे छोटा महसूस करवाया।” लेकिन सबसे खास बात ये थी कि उसने अंत में कहा –

“आज मैं पहली बार खुद को आईने में देखती हूं और कहती हूं – मैं सुंदर हूं, क्योंकि मैं मैं हूं।”

पूरे हॉल में तालियां गूंज उठीं। वहां मौजूद हर लड़की की आंखों में आंसू थे, और हर किसी ने खड़े होकर उसका स्वागत किया।

आज की शिवी

आज शिवी एक मोटिवेशनल स्पीकर है। वह स्कूल और कॉलेजों में जाती है और लड़कियों को बताती है कि रंग, वजन या चेहरा – ये पहचान नहीं हैं। पहचान है आत्मविश्वास, हुनर और सच्चाई।

उसकी सोशल मीडिया प्रोफाइल पर बायो लिखा है –

“Brown is beautiful – and so am I.”

शिवी की तरह, हर लड़की को यह समझने की जरूरत है कि सुंदरता कोई रंग नहीं, बल्कि नजरिया है। अगर आप खुद को अपनाना सीख लें, तो दुनिया की कोई भी सोच आपको कमतर महसूस नहीं करा सकती।

 

काले-गोरेपन की चाह या मानसिक बीमारी? जानिए बॉडी इमेज डिसऑर्डर

भारत समेत दुनिया भर में गोरी त्वचा को सुंदरता का मानक समझा जाता रहा है। विज्ञापन, फिल्में और सोशल मीडिया ऐसे आदर्श गढ़ते हैं जो बताते हैं कि “गोरी त्वचा” ही सफलता, आत्मविश्वास और समाज में स्वीकार्यता की कुंजी है। लेकिन यह सोच केवल एक सांस्कृतिक भ्रम नहीं है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है – बॉडी इमेज डिसऑर्डर।

बॉडी इमेज डिसऑर्डर क्या है?

बॉडी इमेज डिसऑर्डर (Body Dysmorphic Disorder – BDD) एक मानसिक स्वास्थ्य समस्या है जिसमें व्यक्ति अपनी शारीरिक बनावट या रंग को लेकर अत्यधिक चिंतित रहता है, भले ही कोई वास्तविक दोष हो ही न। यह विकार व्यक्ति के आत्म-सम्मान को तोड़ता है और कई बार डिप्रेशन, एंग्जायटी, यहां तक कि आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियों की ओर भी ले जाता है।

मुख्य लक्षण:

बार-बार आईने में देखना या खुद से नफरत करना

गोरेपन या सौंदर्य को पाने के लिए क्रीम्स, ट्रीटमेंट्स या सर्जरी का सहारा लेना

दूसरों से खुद की तुलना करते रहना

सामाजिक गतिविधियों से दूर रहना

आत्मग्लानि या शर्मिंदगी महसूस करना

भारतीय समाज में गोरेपन की चाह

भारत में सौंदर्य का पर्याय गोरा रंग बना दिया गया है। Nielsen Report (2018) के अनुसार, भारत में फेयरनेस क्रीम्स का मार्केट सालाना लगभग 4500 करोड़ रुपये का है।

फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों में साफ संदेश होता है – “गोरी त्वचा = आत्मविश्वास और सफलता”। इस सोच ने लाखों युवाओं के मन में यह भ्रम बैठा दिया है कि उनका रंग उन्हें आगे बढ़ने से रोक रहा है।

आंकड़े बताते हैं:

WHO की एक रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण एशिया की लगभग 30% युवा महिलाएं बॉडी इमेज से जुड़ी समस्याओं से जूझती हैं।

India Today (2021) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 70% किशोरियों ने माना कि उन्हें अपने रंग को लेकर आत्मग्लानि होती है।

Psychology India Survey (2020) बताता है कि 40% पुरुष भी अब फेयरनेस प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल करने लगे हैं।

सोशल मीडिया और ‘फिल्टर कल्चर’ का प्रभाव

इंस्टाग्राम, फेसबुक और अन्य प्लेटफॉर्म्स पर “फिल्टर” का अत्यधिक उपयोग यह दर्शाता है कि लोग अपने असली रंग और चेहरे से संतुष्ट नहीं हैं।

एक अमेरिकी अध्ययन के अनुसार, सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा हर दिन औसतन 2 घंटे आईने में खुद को देखते हैं और अपनी त्वचा या शरीर को लेकर असंतोष महसूस करते हैं।

फेयरनेस प्रोडक्ट्स: सौंदर्य या खतरा?

मार्केट में उपलब्ध कई फेयरनेस क्रीम्स में हाइड्रोक्विनोन, स्टेरॉइड्स, और मर्करी जैसे खतरनाक केमिकल्स होते हैं, जो लंबे समय तक उपयोग से त्वचा को नुकसान पहुंचाते हैं और हार्मोनल असंतुलन तक पैदा कर सकते हैं।

FDA और CDSCO जैसी संस्थाएं समय-समय पर इन उत्पादों पर चेतावनी जारी करती रही हैं, लेकिन इनके विज्ञापन आज भी खुलेआम महिलाओं और पुरुषों को “गोरा बनने” का सपना बेचते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ क्या कहते हैं?

AIIMS (नई दिल्ली) के मनोचिकित्सक डॉ. संजय कुमार कहते हैं:

“बॉडी इमेज डिसऑर्डर एक वास्तविक मानसिक समस्या है, जो केवल गोरेपन तक सीमित नहीं, बल्कि शरीर के हर हिस्से को लेकर आत्म-असंतोष को जन्म देती है। इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है।”

इलाज और काउंसलिंग का महत्व

यदि किसी को लगता है कि वह अपने रंग, शरीर या चेहरे को लेकर अत्यधिक चिंतित है और यह सोच उसकी दिनचर्या, रिश्तों या आत्मसम्मान को प्रभावित कर रही है, तो उसे मनोचिकित्सक या काउंसलर से संपर्क करना चाहिए।

इलाज में शामिल हो सकते हैं:

CBT (Cognitive Behavioral Therapy): नकारात्मक सोच को बदलना

मनोचिकित्सा दवाएं (जैसे SSRIs)

समर्थन समूह

परिवार और दोस्तों की सकारात्मक भूमिका

समाज को कैसे बदलें?

  1. शिक्षा प्रणाली में बदलाव: स्कूल स्तर पर बच्चों को आत्म-सम्मान और विविधता की शिक्षा देना जरूरी है।
  2. विज्ञापन नियंत्रण: ऐसे विज्ञापनों पर प्रतिबंध होना चाहिए जो त्वचा के रंग को लेकर हीन भावना पैदा करते हैं।
  3. सेलिब्रिटी ज़िम्मेदारी: मशहूर हस्तियों को चाहिए कि वे ऐसे प्रोडक्ट्स का प्रचार न करें जिनसे सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा मिलता हो।
  4. पेरेंट्स और टीचर्स की भूमिका: बच्चों को समझाएं कि रंग, शरीर या दिखावट जीवन की सफलता का पैमाना नहीं हैं।

गोरी त्वचा की चाहत यदि आपकी नींद, आत्मविश्वास और मानसिक शांति को खा रही है, तो यह सिर्फ एक सौंदर्य की ख्वाहिश नहीं, बल्कि बॉडी इमेज डिसऑर्डर हो सकता है। समाज को चाहिए कि वह सुंदरता की परिभाषा को बदलने की पहल करे और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दे।

सुंदर वही है जो आत्मविश्वास से भरा हो — चाहे वह गोरा हो या काला।

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